दिल्ली दंगों पर किताबः जिसने उदारवादियों को भी बाँट दिया

UNBELIEVABLESAQUIB 2020-08-26



इस साल फ़रवरी में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़े में हुए दंगों पर लिखी गई किताब 'दिल्ली रायट्स 2020: द अनटोल्ड स्टोरी' को छापने वाले प्रकाशक ब्लूम्सबरी इंडिया ने इसके प्रकाशन से हाथ पीछे खींच लिए हैं.



पब्लिशर के मुताबिक़ उनकी जानकारी के बिना किताब के बारे में एक ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें बीजेपी के नेता और दिल्ली दंगे से पहले भड़काऊ भाषण देने के आरोप झेल रहे कपिल मिश्रा को मुख्य अतिथि बनाया गया था.



लेकिन, इस किताब के प्रकाशन से ख़ुद को हटाने के बाद से ब्लूम्सबरी इंडिया को तगड़े विरोध का सामना करना पड़ा है.


किताब के लेखकों समेत दक्षिणपंथी विचारधारा के कुछ लोगों ने प्रकाशक के फ़ैसले पर विरोध जताया. किताब को गरुड़ प्रकाशन के रूप में दूसरा पब्लिकेशन हाउस भी मिल गया और इसका जमकर प्रचार भी हो गया. कहा यह भी जा रहा है कि बड़ी संख्या में इस किताब की प्रतियां प्रीबुक हो चुकी हैं.


'दिल्ली रायट्स 2020: द अनटोल्ड स्टोरी' किताब को मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितलकर और प्रेरणा मलहोत्रा ने लिखा है.


यूं तो हर मसले पर सोशल मीडिया पर लेफ़्ट और राइट के बीच ट्रोलिंग का खेल शुरू हो जाता है. और इसमें कुछ भी ख़ास नहीं है. लेकिन, इस बार एक अजीब चीज़ नज़र आ रही है.


इस किताब के प्रकाशन से ब्लूम्सबरी के पीछे हटने को लेकर उदारवादी तबक़े में दोफाड़ नज़र आ रहा है.


'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का तर्क देते हुए उदारवादियों का एक धड़ा यह मानता है कि किसी भी किताब को छपने से रोकना ठीक नहीं है.


वहीं, दूसरे धड़े का मानना है कि 'घृणा फैलाना' अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आता है. और इस तरह से इस किताब से प्रकाशन से ब्लूम्सबरी का पीछे हटना एक सही फ़ैसला है.


दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स समाजशास्त्र की प्रोफ़ेसर नंदिनी सुंदर लिखती हैं कि ब्लूम्सबरी इंडिया ने दिल्ली दंगों पर लिखी किताब को छापने से पहले किस तरह की फ़ैक्ट-चेकिंग की थी?


उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है, "यह पूरी किताब झूठ का एक पुलिंदा है."


पत्रकार और उपन्यासकार नीलांजना रॉय ने ट्वीट किया है, "दक्षिणपंथी ट्रोल्स, आपको याद दिला दूं. 1. फ्री स्पीच निरंकुश नहीं है, हर किसी को शिकायत का अधिकार है - तब दीनानाथ बत्रा ने वेंडी डोनिगर की द हिंदूज़ को क़ानूनी पेंच में फँसा दिया था. 2. फ्री स्पीच निरंकुश होनी चाहिए, किसी किताब में तथ्यों के पूर्ण अभाव पर सवाल न उठाएं- आज. किसी एक का चुनाव कर लें, नहीं?"


एक और ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "इस किताब की लेखिकाओं में से एक मोनिका अरोड़ा वेंडी डोनिगर की हिंदुओं पर लिखी किताब के अंश हटाने की याचिका दायर करने वालों की वकील रही हैं."


एक्टिविस्ट साकेत गोखले ने एक ट्वीट में लिखा है, "कई लिबरल्स जो कि खुलेआम शरजील इमाम की गिरफ्तारी की वकालत कर रहे थे, अब कपिल मिश्रा के अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बाल्टियां भर-भरकर आंसू बहा रहे हैं."


वे आगे लिखते हैं, "केवल भारत में ही कोई इस तरह के दोहरे व्यवहार को करने के बावजूद अपनी लिबरल साख को बरक़रार रख सकता है."


एक अन्य ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "दिल्ली नरसंहार पर लिखी गई फ़ेक सांप्रदायिक किताब को छापने से पीछे हटने के ब्लूम्सबरी इंडिया के फ़ैसले से ख़ुश हूं. जिन लोगों ने आवाज़ उठाई उन सभी का धन्यवाद."


अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी इस किताब के छपने के पक्ष में नहीं हैं. वे लिखती हैं, "आपने किताब क्यों छापी? क्या आपने इसके फ़ैक्ट-चेक किए थे? अगर यह किताब उस रिपोर्ट पर आधारित है जिसे मैंने देखा है तो यह पीड़ितों पर आरोप लगाने और लोगों को ग़लत नज़रिये से बहलाने की खुलेआम कोशिश है कि दिल्ली दंगों के लिए एंटी-सीएए-एनआरसी प्रदर्शनकारी दोषी थे."


लेकिन, ऐसे भी लिबरल्स हैं जिन्हें इस किताब को न छापने का ब्लूम्सबरी इंडिया का फ़ैसला रास नहीं आया है.


ऐसे लोगों में फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप भी शामिल हैं.


अनुराग कश्यप ने ट्वीट के ज़रिए अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है. उन्होंने लिखा है, "लोकतंत्र आपको मत और इसका विपक्षी मत रखने की जगह देता है. और इससे लड़ने का तरीक़ा विरोध और शिक्षा है. सत्य के लिए यही तरीक़ा रहा है और रहेगा. लेकिन, बैन करना या फ़ैसले से मुकरना एक स्वस्थ लोकतंत्र में समाधान नहीं है. मैं बस यही कहना चाहता था."


वे आगे लिखते हैं, "एक ऐसी किताब जिससे मैं सहमत नहीं हूं उसे बैन करना ठीक वैसा ही है जैसा कि जिस किताब से मैं सहमत हूं उसे बैन करना....कुछ भी बैन करना अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाना है. इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि यह झूठ से भरा हुआ है."


द प्रिंट की ओपीनियन एडिटर रामा लक्ष्मी एक आर्टिकल में कटाक्ष करते हुए लिखती हैं कि एक और सेल्फ गोल करने के लिए लिबरल्स आपको बधाई. इस आर्टिकल में उन्होंने लिखा है, "मुझे पूरा भरोसा है कि इस किताब को कोई नया घर, नया प्रकाशक और एक नया प्लेटफॉर्म मिल जाएगा. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सरकार में यह सोचना भी नामुमकिन है कि इस तरह की किताब को छपने से रोका जा सकता है. असलियत तो यह है कि यह अब और ज्यादा मशहूर होगी, जो कि यह शायद डिज़र्व नहीं करती है."


वे लिखती हैं, "लेकिन, मैं ज्यादा बड़े मसले की बात कर रही हूं. आप अपने तर्कों को कितना भी तोड़-मरोड़ कर पेश करें और उसमें क़ानूनी पेचीदगियों का ज़िक्र करें और हर तरीक़े का वैचारिक माहौल बनाएं ताकि आपको शांति मिल सके, लेकिन लिबरल्स के लिए यह उछल-उछलकर जीत का जश्न मनाने का मौक़ा नहीं है."


सेंटर फ़ॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के पॉलिसी डायरेक्टर प्रणेश प्रकाश ने अपने ट्वीट में लिखा है, "मैं किसी किताब को बैन करने को उचित नहीं मानता हूं. मैं मानता हूं कि किसी कारोबारी वजह या किताब के पक्ष में खड़े नहीं हो सकने की बजाय जिन लोगों ने इस किताब को पढ़ा ही नहीं है उनकी ओर से मिलने वाले डर/क़ानूनी धमकियों/विचारों के आधार पर किताब छापने से पीछे हटना ग़लत है."


  • This post is written by md.saquib siddiqui.
    • Who is a pro blogger he was started blogging at the age of 13
    • If you want to know more click on md.saquibsiddiqui.